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कविता

सवइया

हरेराम द्विवेदी


गोमुख से चली गंग की धार लगै जस जोति बिछावल बाटै
दूध की नइयाँ बड़ी उजरी जनु चानी क पानी चढ़ावल बाटै
की घमवाँ के निचोरि के घोरि के घाटिन बीच बहावल बाटै
भागत धारन की गइया कबसे बछवान पियावल बाटै

गंजा के आवत जानि के सागर कै हियरा हुलसाइल लागै
बारहि बार हिलोर उठै भितराँ केतना अगुताइल लागै
ऊँची उठै लहरैं हलराइ करारन से लिपटाइल लागै
एड़ी उठाइ उठाइ लखै गँगिया कतहूँ बिलमाइल लागै

गंगा की बाट निहारत सागर आस भरे पथ आस लगा के
भेजत बा अगवानी में कोसन ले पनियाँ लहरा लहरा के
भाग की बात बड़ी बा कि जे उपकार करै सगरी वसुधा के
धन्‍य करै हमें आवत बा ऊ हमेसा बदे हिसरे में समा के

सागर कै जल खार जहाँ मिलि गंग की धार न धीरज खोवै
भेंटि भरै अँकवारिन में लहरै हलराइ के प्रीति पिरोवै
गंग थकान हरै बदे सागर धारन से पद पंकज धोवै
गंगा मयायि भई अँसुआ अँसुआन से गंगा भी सागर होवै

तृप्ति बिछावत मुक्ति दियावत गंगा बहै बहतै चलि जाती
जीवन बाँटत कल्‍मष छाँटत जाली निरंतर नाहिं अघाती
पाटत पापन कै गड़हा सुख शान्ति पसारि पसारि जुड़ाली
टारन साप कै ताप कि तारन खातिर सागर जाइ समालीं

मुक्ति मिली पुरखान के जानि भगीरथ के मन सान्ति समाई
जन्‍म सुवारथ भइलन एसे बड़ी जग में भला कौन कमाई
अइसन पुत्र बहै धरती पर पीढ़िन पीढ़िन कीर्ति गवाई
गंग की धार धरा पर आइ गई सरगे पर सीढ़ी लगाई

नार नदी जलधार मिलै कवनो सबके अपनावत जालू
कइसों रहै अपनाइ के ओके सदा अपनै में मिलावत जालू
पीर सबै ओरवाइ के ओकर धीर हिया में बन्‍हावत जालू
बाबा के देन इहै बा तोहैं बिख पीयत जालू पचावत जालू

दीन दुखी जन के जग में ताहईं सुनली कि बनैलू सहारा
तोरे दुआरे मिलै सुख चैन कतौं नाही जेकर हाय गुजारा
ओहू के पार लगाइउ जेकर बुड़त नाव रहै मझधारा
कोटिन कोटिन पापिन के तरलू जननी हमके न बिसारा

मोह बसाइउ हिये एतना तब आउर केकर आस लगाईं
धीरज साथ न छोड़इ लागै पियास त धाई पियास बुताईं
दीन मलीन औ साधनहीन भले रहीं अउर के पास न जाईं
बा अरदास इहै मन में तोरे दास के दास कै दास कहाईं

एकइ साध रही मन में तोहरे तट एक कुटी बनवाईं
तोहैं निरंतर देखि के पूजा करीं तोहरैं, तोहरै गुन गाईं
साँझ बिहान सबै दिन तोरेइ पावनि धार के बीच नहाईं
तोरइ गोदी में आँचर की छँहियाँ सगरी जिनगानी बिताईं

बाँटत आवत बाटू सबै सुख हे जननी हम का तों से माँगीं
तोरइ पावनि प्रीति के रीति में लीन सदा मन आपन पागीं
राग बढ़ै मन में कबहूँ तब केवल तोरइ में अनुरागीं
चाह इहै तोहरै गुन गावत तोरइ तीर परान तियागी 


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